Sunday, October 14, 2018

आसुँ (कविता)

एक आस की प्यास अधुरी
आसुँ बन बह जाता हूँ ।
कोई न पुछे मुझको तब
रहमत माँगत बेबस बन जाता हूँ ।

इस छोटे से आशीये का
आसमान तक कोना-कोना देखा है ।
फिर भी तुझे ढुढँना पड़ता है
वह खुशी तेरी कौन सी रेखा है ।

इस फकीर की तु भी लकीर है
कब तक तु मेरा ऐसा नसीब है ।
खाली पन्नों की तु कैसी किताब
सब जानकर समझने वाला भी बेताब ।

एक आस की प्यास अधुरी
आसुँ बन बह जाता हूँ ।
कोई न पुछे मुझको तब
रहमत माँगत बेबस बन जाता हूँ ।

इस लोर की चमक भी
सुख अवसर पर कुछ और है ।
कही इससे मातम छाया
जहाँ रोने का शोर है ।

रूठ तो  तुम भी गए हमसे
इसलिए अंदर ही रहते हो ।
लोग कहते है रोता नही हूँ मैं
तुम कितना कुछ सहते हो ।

एक आस की प्यास अधुरी
आसुँ बन बह जाता हूँ ।
कोई न पुछे मुझको तब
रहमत माँगत बेबस बन जाता हूँ
     
         गुंजन द्विवेदी

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