सिख लिया, मर कर भी जीना
जाना जब ,यहाँ कातिल बहुत हैं ।
बुराई करते थे , वो कह कर
इसमें फाज़िल बहुत है ।
देख लिया इस जग ने मुझमें
नई दुनिया की नई कहानी ।
सोई किस्मत कब तक थी सोती
मिल गई , मेरे सपनो की बानी ।
क्या बताऊ , बिन आसुँ कैसे रोती है आँखें
कह कर सोजा , जग जाती थी वे रातें।
राह मे न लगते ठोकर तो
वह पत्थर भी न टकराते ।
इस दिन से पहले , हम तुम से क्या कहते
मीत रहते हुए , प्रीत से क्यों न डरते ।
दुसरो को चुप करा कर , खुद कैसे रोते
चमकने से पहले , चैन से कैसे सोते ।
सिख लिया, मर कर भी जीना
जाना जब ,यहाँ कातिल बहुत हैं ।
बुराई करते थे , वो कह कर
इसमें फाज़िल बहुत है ।
गुंजन द्विवेदी
Nice poem
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