Sunday, September 23, 2018

सपना सा सच

कभी कभी  सच ,सपना सा लगता है।
कोई गैर भी कभी,अपना सा लगता है।
अपनो ने साथ वही छोडा।
जहाँ देखा अकेला था।
सबकुछ विरोध मे होते हुए, हमने इसे नकारा था।
उस छण केवल ईश्वर ,नाम तेरा पुकारा था।
तकदीर मे लिखा, यह दिन आना था।
नही तो हमने, अपनो को अपना माना था।
कभी कभी  सच ,सपना सा लगता है।
कोई गैर भी कभी,अपना सा लगता है।
वही मेरा सहारा था।
जिसको डुबते तिनके सा,पहचाना था।
यह दिन न आता , सच सपना का आभास न होता।
जीवन मे ,दुखः निराशा का एहसास न होता।
जीवन मे, सुख दिन के बाद, दुखः रात न आता ।
तो आने वाला सुख, हमको रास न आता ।
कभी कभी  सच ,सपना सा लगता है।
कोई गैर भी कभी,अपना सा लगता है।
अगर वर्षा मे प्यास न हो।
गहरे समुन्र्द मे ऊँची लहरो का नाम न हो।
तो उसका कर्म अधुरा है।
 आने वाले कल का आगाज़ न हो।
इच्छा को कामयाबी की आवाज़ न हो।
तो उसकी चाहत अधुरी है ।
कभी कभी  सच ,सपना सा लगता है।
कोई गैर भी कभी,अपना सा लगता है
गुलाब के सुगंध संग काँटे न हो।
अगर जीवन मे सुख दुखः जैसा अंतर न हो।
तो हमारा जीवन अधुरा है।
क्योकि गर्मी के बाद ही , बरसात पुरा है।
कभी कभी सच, सपना सा लगता है।
कोई गैर भी कभी, अपना सा लगता है।sapna sa sach poem

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